रविवार, 18 नवंबर 2007

वही जगत् में सदा महान्

गाली सुनकर भी जो मन में जरा नहीं दुःख पाता है ।
क्रोध दिलाने पर भी जिसको क्रोध नहीं कुछ आता है ॥
कड़वे वचन कदापि न कहता मर्म-भेद करने वाले ।
वचन सत्य-हित-मधुर बोलता अमृत बरसाने वाले ॥
परदुःख से ही दुःखी सदा जो परसेवा करता रहता ।
स्वयं दुःख उठाकर भी दूसरों के दुःख नित हरता रहता ॥
कपट-दंभ-अभिमान छोड़ जो हरता है परदुःख-अज्ञान ।
जग में सबसे श्रेष्ठ वही है वही जगत् में सदा महान् ॥

(श्रद्धेय पिताजी की यह रचना, सर्वदा सबका मार्गदर्शन करती रहे, इसी शुभाशंसा के साथ....)

3 टिप्‍पणियां:

  1. सचमुच पिताजी की यह रचना सदाबहार प्रेरक है । इसमें जैसा कहा गया है वैसा आचरण करने वालों को दुनिया ठीक नहीं समझ पाती, कुछ कुछ मूर्ख समझती है परन्तु जिन्हें इस तरह जीने में आनन्द आ गया है वे इस सब की परवाह नहीं करते और अपने तरीके से आगे बढ़ते रहते हैं ।

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  2. अहं तु वरिष्ठ-कनिष्ठ छात्रान् अपि अस्मिन् पथि आगन्तुं प्रेरयितुमिच्छामि यत् ते अधिकाधिकं रचनाः कृत्वा हिन्द्यां वा संस्कृते वा स्वप्रतिभायाः केन्द्रस्य, संस्कृतस्य साहित्यसमृद्धतायाः विकासं कुर्युः ।

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  3. भवान् सत्यं भणसि. यदि वयं संस्कृतानुरागिनः सूचनाप्रौद्योगिकीक्षेत्रे स्वभाषायाः विकासं इच्छामः तर्हि ऑनलाइन (सामग्री)लेखनमावश्यकम्.

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