आज ब्लॉग-दर-ब्लॉग घूम रहा था कि अचानक एक "चिट्ठे" पर नजर पड़ी, जिसके चिट्ठाकार भाई प्रतीक ने चाचा चौधरी के कॉमिक्स पर बड़ा ही रोचक एक लेख लिखा है, उसे पढ़कर मुझे भी अपने बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक के दिनों के "कॉमिक्स-प्रेम" की याद आ गई. सोचा कि आप सबों से उन दिनों की इस याद को बाँटने में हर्ज क्या है !
उन दिनों कॉमिक्स के जादू में पड़कर पता नहीं कितनी बार माँ-पिताजी से पिटा होऊँगा, बता नहीं सकता. पिताजी हम भाई-बहनों को पढ़ाते-२ बीच में कुछ देर के लिए भी हटे नहीं कि कोर्स की पुस्तकों के बीच में अपने प्यारे "नागराज" को रखकर उससे बातें शुरु कर दी. इस हद तक इन महोदयों से प्यार हो गया था कि शौचालय में भी वे साथ होते.
माँ द्वारा कितनी बार इन चाचा चौधरी, नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, भोकाल इत्यादि का पोस्टमार्टम हुआ, उसके बाद भाड़े पर लाये गये उन महोदयों (कॉमिक्स-पात्र) के मालिक से छुपने-छुपाने का खेल चलता. फिर उसके बाद मौका खोजा जाता कि कब पिताजी अपना कुर्ता खोल कर टाँगे और ५-१० रुपये सफाई के साथ निकाल कर दुकानदार के पैसे चुकाए जाएँ. कभी-कभी तो यह सफाई पिताजी की भुलक्कड़ी प्रवृत्ति से काम कर जाती किन्तु गाहे-बगाहे यह सफाई "दुःखहरण-यन्त्र" का शिकार भी बना देती.