रविवार, 9 सितंबर 2007

मेरी कुछ क्षणिकाएँ.......

कल रात जब सोने चला तो नींद नहीं आई......मन भी कुछ उधड़-बुन में लग चुका था, उसी उधड़-बुन से उद्भूत ये क्षणिकाएँ हैं....अपनी टिप्पणियों से अवगत कराएँ.....

१)
आँचल में छुपाए हुए थे
जो कल तक
आज आँचल का किराया माँगते हैं.


२)
हमें बदनाम करने की कोशिश में
लगे रहते हो
क्या नहीं पता !!
हम यूँ ही नामवाले हुए जाते हैं.


३)
खुदा के नाम पर
रोटी के बदले
हथियार देकर
खून का प्याला पीने को कहते हो
चलो,
शुरुआत तुम्हीं से करता हूँ.


४)
क्या कहा !
रातें अच्छी क्यूँ लगती हैं?
उजाले में भटकने का डर है.


५)
भूलाने का अंदाज नया
अच्छा है
दीवारों पर पुताई कराते चलो.


६)
क्या सोचते हो,
मेरा वसंत नहीं आएगा !!
मुझे उठाए इन कंधों के आगे
तुम्हे बाजे सुनाई नहीं देते ?


७)
वो सामने,
जो खंडहर देख रहे हो,
वो हसीन महल
मेरा ही था.


८)
"अल्लाह" के नाम पर,
"
खुदा" को मत रोको
आजकल "
परवरदिगार"
कारिन्दों के साथ
बम-धमाके में लगे हुए हैं.


९)
सभा में,
नारी-स्वातन्त्र्य पर ताली पीटवाकर
घर में,
अर्द्धांगिनी को पीट रहे हैं.

१०)
करता रहा इंतजार उनका
गलियों में उनके,
पता नहीं
किन गलियों से वे निकल लिये ?


११)
क्यों,
बार-बार मेरे भूत को कुरेदते हो
अब तो ठीक है ना !!
सपने में तुम्हारे
रोज आया करुँगा.


१२)
प्यार में फ़ासले की बात करते हैं,
उन्हे क्या पता,
कब ये फ़ासले बढ़ गये ?


१३)
हम उनकी जिन्दगी की दुआ
माँगते रहे
और
हमें चौथा कंधा नसीब ना हुआ !!