बुधवार, 31 दिसंबर 2008

अपनी अंतिम संध्या में....

सभी पाठकों को मेरा नमस्कार !!

अपनी बात शुरु करने से पहले शिष्टता के नाते अपना परिचय दे दूं । मैं श्रीयुत्‌ इक्कीसवीं शताब्दी जी का आठवां पुत्र 2008 . हूं। अब मेरी चला-चली की बेला है, जीवन के कतिपय 2-4 घंटे बचे हैं। बहुत-सी बातें हैं जो आपसे बांटना चाहता हूं ताकि शांतिपूर्ण तरीके से मर सकूं। हालांकि नहीं जानता कि इन 2-4 घंटों में अभी क्या कुछ देखना पड़ सकता है? किंतु ईश्वर से यही विनती है कि जाते-जाते मेरी मृत्यु को शांतिपूर्ण बना दे और साथ ही यह भी कि मेरे छोटे भाई 2009 को इन सारी विपदाओं से दूर रखे।

जब मेरा जन्म हुआ था तब भी काफी चहल-पहल हुई थी, खुशियां मनायी गयीं थी । ढेरों शुभकामनाओं के बीच पैदा हुआ मैं, आज मरने के पहले, जब अपने जन्म से लेकर के अबतक के दिनों को याद करता हूं तो पाता हूं कि जिन शुभकामनाओं को लेकर मैं पैदा हुआ, वो तो प्रायः प्रतिदिन ही चोटिल होती रहीं किंतु अपनी दुर्दम्य जिजीविषा के द्वारा चोट से उबरती रहीं, फिर से जीने के लिए। आखिर ऐसा कब तक होता, अंत मे, 26 नवंबर को उसे मार ही दिया गया। उस दिन वे शुभकामनाएं अकेली नहीं मरी थी, उनके साथ ही मर गए थे ढेरों अरमान, ढेरो सपने, ढेरो यादें, ढेरो कल्पनाएं और अपने पीछे छोड़ गए कारुणिक विलाप, वीभत्स यादें, सिहरन, घृणा और भी ना जाने क्या कुछ। कहने को आप कह सकते हैं कि कुछ सिरफिरे लोगों ने ऐसा कुछ कर दिया, लेकिन मेरा मानना है कि ये जो घटना अंजाम दी गई, इसके पीछे दानवों का एक बहुत बड़ा तबका है, जिनका एक ही उद्देश्य है-मानवता को ध्वस्त करना। इस घटना के जिम्मेदार केवल वे दानव ही नहीं हैं अपितु उन दानवों के लिए धरातल तैयार करने वाले वे सफेदपोश दानव भी हैं जो कि मानवों का चोगा पहनकर मानवों के प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं। 26 नवंबर को मुंबई में जो हुआ, वह कोई नई फिल्म नहीं थी, अपितु पूर्व में जयपुर-अहमदाबाद-दिल्ली इत्यादि जगहों पर दिखाए गए ट्रेलर की पूरी फिल्म भर थी। उस दिन जो मैंने देखा , वो आज मेरे मरण-दिवस को भी मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा। आप पाठकों से बस यहीं विनती है कि आज मरते हुए इस याचक को इतना आश्वासन दे दो कि जिस हालात से अभी मैं गुजर रहा हूं, उससे मेरा छोटा भाई 2009 ना गुजरे। क्या आप मेरी आवाज सुन रहे हैं??

रविवार, 28 दिसंबर 2008

हाय रे मेरी कविता !!

शहर में लगा था इश्तिहार

जिसका मजमून था

कि

जो भी महानुभाव

अपनी कविता की प्रतिभा

दिखाना चाहते हों

पचास का एक नोट

रजिस्ट्रेशन फी के रूप में लेकर

नियत तारीख को आ जाएं

और अपनी कविता रूपी प्रतिभा से

दस-दस रुपए में इकठ्ठा किए गए

श्रोताओं का मुकाबिला करा जाएं.


इसे पढ़कर मैंने भी सोचा

क्यूं ना अपना भी भाग्य आजमा जाए

और मुद्रा देकर बुलाए गए श्रोताओं से

मुकाबिला कराया जाए.


सड़े टमाटर एवं अंडों रूपी खतरे की आशंका को दरकिनार कर

आखिर पहुंच ही गया

कवि-सम्मेलन के मंडप में

नियत दिन को

संध्या छः बजे से कुछ पहले,

वहां पहुंच कर आया मुझे रोना

जब देखा मैंने मात्र दो-चार को ही,

मेरी रोनी सूरत को देखकर

वहां उपस्थित में से एक ने पूछा-

आप कौन हो भाई

क्यों है रोनी सूरत बनाई?

क्या आप भी कवि-सम्मेलन में भाग लेने आये हो?

मेरे हां कहने पर

उन्होने ढांढस बधायी

और बोले-

थोड़ा सब्र करो मेरे भाई

कार्यक्रम शुरु होने में अभी थोड़ी देर है.


खैर,

कैसे-कैसे करके काटे मैंने कुछ और घंटे

इंतिजार की घड़ी हुई खतम

भीड़ के भीड़ में लोग पहुंचने लगे

यह देखकर

मन हुआ अति गदगद.


लेकिन हाय रे दैव,

उस भीड़ में सुनने वाले थे कम

और सुनाने वालों को देखकर

निकला जा रहा था दम.


धैर्य झगड़ुआ की

कि आखिर में मेरी भी बारी आई,

और अपना नाम पुकारे जाने पर

उठकर मैंने ली एक अंगड़ाई

और अपनी कविता की प्रतिभा से

जैसे ही घूंघट हटाई,

भीड़ गई बौखलाई

और अपनी बचाते हुए

दूसरों की चप्पलें उठाकर

मंच की तरफ फेंकते हुए चिल्लाई-

जल्दी से कविता का घूंघट गिरा

नहीं तो तेरी शामत है आई.