अथाधिविद्यम् । आचार्यः पूर्वरूपम् । अन्तेवास्युत्तररूपम् ।
विद्या सन्धिः । प्रवचनमृसन्धानम् । इत्यविधिविद्यम् ॥१॥
शरीरं मे विचर्षणम् । जिह्वा मे मधुमत्तमा ।
कर्णाभ्यां भूरि विश्रुवं ब्रह्मणा कोशोऽसि मेधया पिहितः ।
श्रुतं मे गोपाय ॥२॥
आ मा यन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ।
विमाऽऽयन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ।
प्र मा यन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ।
दमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ।
शमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ॥३॥
<तैत्तिरियोपनिषद्, शिक्षावल्लीतः>
(अब आचार्य और शिष्य के सम्बन्ध का कथन किया जा रहा है-)
पूर्वरूप आचार्य हैं, उत्तररूप शिष्य. विद्या और आचार्य का प्रवचन दोनों को जोड़ने वाला साधन है. केवल पुस्तक-ज्ञान पर्याप्त नहीं. विद्या का आगमन तभी सम्भव है, जब शिष्य आचार्य के समीप निवास करे और उसके गुणों को धारण करे ॥१॥
आचार्य-कथन (स्वयं के प्रति) - मेरा शरीर तेजस्वी तथा बलवान हो. मेरी वाणी मधुर तथा स्नेहमयी हो. मैं कानों से ज्ञान की बहुत-सी बातें सुनूँ. मेरा ज्ञान बुद्धि द्वारा सुरक्षित रहे और समय पर उपयोग में आये ॥२॥
आचार्य-कथन (शिष्य के प्रति) - विद्यार्थी मेरे पास आएँ. विद्यार्थी मेरे पास विशेष संख्या में आएँ. विद्यार्थीगण मेरे पास आकर प्रगति करते रहें. मेरे पास आने वाले विद्यार्थी संयमी हों. मेरे पास आने वाले विद्यार्थी शान्ति और शील वाले हों. मेरे पास जो ज्ञान है, वह मैं उन्हे (छात्रों को) निष्कपट भाव से देता रहूँ ॥३॥