शुक्रवार, 30 नवंबर 2007

शिष्यं प्रति आचार्योक्तिः

अथाधिविद्यम् । आचार्यः पूर्वरूपम् । अन्तेवास्युत्तररूपम् ।
विद्या सन्धिः । प्रवचनमृसन्धानम् । इत्यविधिविद्यम् ॥१॥

शरीरं मे विचर्षणम् । जिह्वा मे मधुमत्तमा ।
कर्णाभ्यां भूरि विश्रुवं ब्रह्मणा कोशोऽसि मेधया पिहितः ।
श्रुतं मे गोपाय ॥२॥

आ मा यन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ।
विमाऽऽयन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ।
प्र मा यन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ।
दमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ।
शमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ॥३॥ 
<तैत्तिरियोपनिषद्, शिक्षावल्लीतः>

(अब आचार्य और शिष्य के सम्बन्ध का कथन किया जा रहा है-)
पूर्वरूप आचार्य हैं, उत्तररूप शिष्य. विद्या और आचार्य का प्रवचन दोनों को जोड़ने वाला साधन है. केवल पुस्तक-ज्ञान पर्याप्त नहीं. विद्या का आगमन तभी सम्भव है, जब शिष्य आचार्य के समीप निवास करे और उसके गुणों को धारण करे ॥१॥

आचार्य-कथन (स्वयं के प्रति) - मेरा शरीर तेजस्वी तथा बलवान हो. मेरी वाणी मधुर तथा स्नेहमयी हो. मैं कानों से ज्ञान की बहुत-सी बातें सुनूँ. मेरा ज्ञान बुद्धि द्वारा सुरक्षित रहे और समय पर उपयोग में आये ॥२॥

आचार्य-कथन (शिष्य के प्रति) - विद्यार्थी मेरे पास आएँ. विद्यार्थी मेरे पास विशेष संख्या में आएँ. विद्यार्थीगण मेरे पास आकर प्रगति करते रहें. मेरे पास आने वाले विद्यार्थी संयमी हों. मेरे पास आने वाले विद्यार्थी शान्ति और शील वाले हों. मेरे पास जो ज्ञान है, वह मैं उन्हे (छात्रों को) निष्कपट भाव से देता रहूँ ॥३॥

रविवार, 18 नवंबर 2007

वही जगत् में सदा महान्

गाली सुनकर भी जो मन में जरा नहीं दुःख पाता है ।
क्रोध दिलाने पर भी जिसको क्रोध नहीं कुछ आता है ॥
कड़वे वचन कदापि न कहता मर्म-भेद करने वाले ।
वचन सत्य-हित-मधुर बोलता अमृत बरसाने वाले ॥
परदुःख से ही दुःखी सदा जो परसेवा करता रहता ।
स्वयं दुःख उठाकर भी दूसरों के दुःख नित हरता रहता ॥
कपट-दंभ-अभिमान छोड़ जो हरता है परदुःख-अज्ञान ।
जग में सबसे श्रेष्ठ वही है वही जगत् में सदा महान् ॥

(श्रद्धेय पिताजी की यह रचना, सर्वदा सबका मार्गदर्शन करती रहे, इसी शुभाशंसा के साथ....)

धर्मनिरपेक्षता के पाखंडी वाहक

उन्होनें कहा-
लादेन मरे या बुश, हम दोनों में खुश.
फिर जोड़ा-
ना लादेन मरे ना बुश, लगे दोनों पर अंकुश.

उनकी बातें सुनकर पूछा मैनें उनसे
लादेन और बुश की हो रही है लड़ाई
उसमें हिन्दूओं की क्यों हो रही है कुटाई ?
आपके पास क्या है इसका जवाब ?

उन्होनें उत्तर दिया-
सरासर गलती तो हिन्दूओं की हीं है.
क्यों वह समर्थन सच्चाई का कर रहे हैं ?

तब मैनें पूछा- हे जनाब !
उन निहथ्थे रामसेवकों का दोष क्या था,
जो जला दिये गये साबरमती की बोगियों में?

मेरी बात सुनकर रहा न गया उनसे
तमतमा गया चेहरा उनका
बोले,
क्या बात करते हो यार !
क्यों गये थे अयोध्या में होकर तैयार ?

वो जले तो ठीक हीं जले,
मरे तो ठीक हीं मरे.
यदि कोई हिन्दू मरा तो समझो कि उसने जरूर कोई गलती की होगी.

आखिर इस धर्मनिरपेक्ष देश में,
क्या उनको यह भी नहीं है अधिकार
कि वो मार सकें काफिरों को बार-बार?

वे तो अपने धर्म पर हैं अडिग.
उनका तो धर्म कहता है-
जो तेरी राह में हो पड़े,
उन्हे मारकर बनो तगड़े (गाज़ी).

उन्होनें तो केवल अपना काम किया
नाहक हीं उनको तुमने बदनाम किया.

जरा-सा रूक कर पूछा उन्होनें मुझसे-
बताओ श्रीमान् !
ये संघी क्यों लगाते हैं साम्प्रदायिक आग,
हिन्दूओं को ये क्यों भड़काते हैं
क्यों उन्हें जागृति का पाठ पढ़ाते हैं ?
ये तो सो रहे थे, नाहक हीं उन्हे जगा दिया.

अरे ! हिन्दूओं का तो काम ही है सहना
और बार-बार मरना.
ये लोग भी कोई लोग हैं,
आज मर-कट रहे हैं तो हो रहा है हल्ला.

इतना सुनकर रहा न गया मुझसे
मैनें कहा-
धन्य हो मेरे भाई
तुम्हारे रहते अन्य कौन बन सकता है कसाई.
हमें मारने के लिये तो आप जैसे धर्मनिरपेक्ष हीं काफी हैं.

अब वह दिन दूर नहीं,
जब आप जैसों के अनथक प्रयास से
ये अपाहिज-कायर हिन्दू मिट जायेंगे जहाँ से
मैं तो बेकार हीं कोस रहा था आपके प्यारों को
अरे ! आपके सामने उनकी क्या औकात है ?
ये सब घटनायें तो आप जैसों की सौगात है.


(इन पंक्तियों को लिखे लगभग ४-५ साल हो रहे हैं किन्तु इसमें लिखी बातें आज भी उतनी ही सत्य हैं.  कुछ लोग मेरे शैली से असहमत हो सकते हैं किन्तु सिरे से खारिज नहीं कर सकते हैं.)

शुक्रवार, 16 नवंबर 2007

रक्षाबन्धनोत्सवस्य चित्रपञ्चिका



अस्यां चित्रपञ्चिकायां पञ्चजनास्सन्ति. एकमस्ति मम मित्रस्यानुजः राकेशः यः सम्प्रति जवाहरलालनेहरूविश्वविद्यालयतः "संगणकविज्ञाने" शोधं करोति. द्वितीयोऽस्ति ममानुजः सुधाकरः यः ईग्नूतः पर्यटनाध्ययने स्नातकं करोति. या अस्माकं रक्षासूत्रे बध्नाति सा राकेशस्यानुजा रिंकी अस्ति, ज.ने.विश्वविद्यालये कोरियायीभाषायां स्नातकं करोति. अन्यतमा या "मॉडल" बालिका अस्ति सा मम भगिनीपुत्री तथा मम हृदयमस्ति-सुप्रिया. स्वविषये कथनस्यावश्यकता न मन्ये. सत्यं कथयामि न वा.....??? चित्रपञ्चिकायाः सर्वाणि चित्राणि द्रष्टु‌म्‌ उपरि स्थापितचित्रे क्लिक्कुरु.

रविवार, 9 सितंबर 2007

मेरी कुछ क्षणिकाएँ.......

कल रात जब सोने चला तो नींद नहीं आई......मन भी कुछ उधड़-बुन में लग चुका था, उसी उधड़-बुन से उद्भूत ये क्षणिकाएँ हैं....अपनी टिप्पणियों से अवगत कराएँ.....

१)
आँचल में छुपाए हुए थे
जो कल तक
आज आँचल का किराया माँगते हैं.


२)
हमें बदनाम करने की कोशिश में
लगे रहते हो
क्या नहीं पता !!
हम यूँ ही नामवाले हुए जाते हैं.


३)
खुदा के नाम पर
रोटी के बदले
हथियार देकर
खून का प्याला पीने को कहते हो
चलो,
शुरुआत तुम्हीं से करता हूँ.


४)
क्या कहा !
रातें अच्छी क्यूँ लगती हैं?
उजाले में भटकने का डर है.


५)
भूलाने का अंदाज नया
अच्छा है
दीवारों पर पुताई कराते चलो.


६)
क्या सोचते हो,
मेरा वसंत नहीं आएगा !!
मुझे उठाए इन कंधों के आगे
तुम्हे बाजे सुनाई नहीं देते ?


७)
वो सामने,
जो खंडहर देख रहे हो,
वो हसीन महल
मेरा ही था.


८)
"अल्लाह" के नाम पर,
"
खुदा" को मत रोको
आजकल "
परवरदिगार"
कारिन्दों के साथ
बम-धमाके में लगे हुए हैं.


९)
सभा में,
नारी-स्वातन्त्र्य पर ताली पीटवाकर
घर में,
अर्द्धांगिनी को पीट रहे हैं.

१०)
करता रहा इंतजार उनका
गलियों में उनके,
पता नहीं
किन गलियों से वे निकल लिये ?


११)
क्यों,
बार-बार मेरे भूत को कुरेदते हो
अब तो ठीक है ना !!
सपने में तुम्हारे
रोज आया करुँगा.


१२)
प्यार में फ़ासले की बात करते हैं,
उन्हे क्या पता,
कब ये फ़ासले बढ़ गये ?


१३)
हम उनकी जिन्दगी की दुआ
माँगते रहे
और
हमें चौथा कंधा नसीब ना हुआ !!

गुरुवार, 19 जुलाई 2007

आजकल मनमोहन जी दुःखी हैं......

विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि भारतीय गणराज्य के प्रधानमंत्री को आजकल नींद नहीं आ रही है । कारण तो कुछ ज्यादा स्पष्ट नहीं हुआ है लेकिन 'बेनकाब टी.वी.' के अनुसार हनीफ की माँ का रोना ही मनमोहन जी के नींद नहीं आने का सर्वप्रमुख कारण है । आखिर मनमोहन जी करें भी तो क्या करें? देश के संसाधनों पर सर्वप्रथम हक वाला , आस्ट्रेलियाई सरकार के द्वारा तंग किया जा रहा है ! अब ये अमेरिका के राष्ट्रपति तो हैं नहीं कि आस्ट्रेलिया को डाँट दें ! तो इन्होने अपनी नींद ना आने की चिन्ता से उबरने हेतु आस्ट्रेलियाई दूत को बुलाकर कह दिया कि भाई आप उसे सारी सुविधाएँ दो। हमारे प्रधानमंत्री जी बहुत व्यथित हो जाते हैं जब भी "संसाधनों पर पहले हक वालों" को उनके जिहाद कार्य से रोक दिया जाता है । हाँ, इनकी व्यथा तब कुछ हद तक दूर हो जाती है जब ये "हक वाले" कश्मीर में कुछ "बेहक वालों" को मार देते हैं । बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए प. बंगाल के 24 परगना जिले में एक 14 वर्षीय हिन्दू बालक को, उस क्षेत्र में अल्पसंख्यक होने के कारण जला देते हैं, इस घटना से उनके कान पर जूँ तक नहीं रेंगती लेकिन सुदूर कहीं कुछ हो जाए तो बस पूछिए मत कि कैसी हो जाती है उनकी हालत ? हनीफ के अलावा एक और "हक वाला" इनका प्रिय है, जिसके बचाव में इनके अपने कश्मीरी मुख्यमंत्री आजाद साहब खुल कर बयान दे हीं चुके हैं । जी हाँ, आप सही समझे ! अफ़जल की ही बात कर रहा हूँ । इसके लिए भी मनमोहन जी बहुत परेशान रहते हैं । ये करें तो क्या करें ? अभी वर्तमान, किन्तु अगले कुछ दिनों मे भूतपूर्व होने वाले माननीय राष्ट्रपति डॉ. कलाम से इनके और इनकी सुप्रीमो के रिश्ते कुछ खास अच्छे हैं नहीं, इस कारण अफ़जल की माफ़ी की बात चला नहीं पा रहे हैं | इसलिए सोचा कि उस कुर्सी पर किसी खास सिपाहसलार को बैठा दिया जाए, जिससे कि आगामी समय में माफ़ी का रास्ता खुल जाए । जल्दी हीं उनका यह दुःख भी दूर होने वाला है ।

मंगलवार, 17 जुलाई 2007

महात्मनाम् स्वभावः

विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा 
सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः ।
यशसि चाऽभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ 
प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥
भर्तृहरिणा, नीतिशतकात्

सरलार्थः - महानुभावानां स्वाभाविकोऽयं गुणः यत्ते आपत्काले व्याकुला न भवन्ति, संपदि च सर्वं सहन्ते, विद्वत्सभायां सरसवचनेन सर्वानावर्जयन्ति, रणरङ्गे लम्पटा भूत्वा न पलायन्ते, यशोभिवृद्धये निरन्तरं प्रयतन्ते, वेदशास्त्राभ्यसने सततं प्रवृत्तास्तिष्ठन्ति ।

हिन्द्याम् - विपत्ति में धैर्य, अभ्युदय में सहिष्णुता, सभा में वाक् चातुरी, युद्ध में वीरता, यश में उत्कण्ठा, वेद-शास्त्रों विषयक अनुराग, ये गुण महानुभावों के स्वभाव में ही पाये जाते हैं ।

शनिवार, 14 जुलाई 2007

पुरुषविवेचनम्

एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परित्यज्य ये, 
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये ।
तेऽमी मानुषराक्षषाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये,
ये निघ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ॥
-भर्तृहरिणा, नीतिशतकात्.

सरलसंस्कृतार्थ :- ये तु स्वार्थं त्यक्त्वा परार्थं साधयन्ति ते सज्जनाः, ये स्वार्थ अविरोधेन परार्थं कुर्वन्ति ते साधारणाः, ये च केवलं स्वार्थपराः सन्तः परार्थं विध्वंसयन्ति ते राक्षसप्रकृतयोऽधम-कोटिभाजो उच्यन्ते । किन्तु ये निरर्थकं परहिते बाधका भवन्ति ते कथंभूता इति न वयं जानीमः ।

हिन्दी - इस संसार में कुछ ऐसे विरले सज्जन व्यक्ति होते हैं जो अपने स्वार्थ का त्याग करके भी परोपकार करते हैं । ऐसे व्यक्ति के लिए अपना-पराया जैसा भेद नहीं रहता । वह प्रत्येक मनुष्य में उसी सच्चिदानन्द का दर्शन करता है, जो उसके स्वयं के अन्तस् में विद्यमान हैं । अतः किसी का भी दुःख उसका अपना हो जाता है और उस दुःख के निवारणार्थ निज को कष्ट पहुँचाने में भी हिचक नहीं होती । दूसरी कोटि होती है- साधारण प्रकार के व्यक्तियों की, जो अपने स्वार्थ को सिद्ध करते हुए दूसरों के अभीष्ट की भी सिद्धि करते हैं । तृतीय कोटि वाले व्यक्ति नराधम होते हैं जो अपने स्वार्थ की सिद्धि हेतु दूसरों के हित का नाश कर देते हैं । किन्तु ऐसे भी हैं जो परहित का निष्कारण ही हनन करते हैं, उनकी कौन सी कोटि है, यह बताना हमारे वश की बात नहीं ।

कर्ममाहात्म्यम्

ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे, 
विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे । 
रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः, 
सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने, तस्मै नमः कर्मणे ॥ 
-भर्तृहरिणा, नीतिशतकात्

सरलसंस्कृतार्थ :- कर्मवशादेव ब्रह्मा कुम्भकारवत् सृष्टिकार्यं निरमपयति, विष्णुश्च दशसु अवतारेषु कष्टं सहते । शिवश्च कपालजटितेन पाणिना हस्तेन वा भिक्षार्थं पर्यटति । दिवाकरोऽपि गगने सततं भ्रमति । येन कर्मणा एतेऽपि नियोजिताः तं कर्मम् अवश्यं नमस्करणीयम् ।

हिन्दीसरलार्थ :- जिस कर्म ने विधाता को ब्रह्माण्डरूपी पात्र के अन्दर कुम्हार की तरह सृष्टि कार्य हेतु नियोजित किया, विष्णु को दशावतार रूपी कष्टतम कार्य में नियुक्त किया, शंकर को हाथ में खप्पर लेकर भिक्षाटन कराया और सूर्य को आकाश में निरन्तर भ्रमण कराता है, उस कर्म को नमस्कार है ।

शुक्रवार, 29 जून 2007

एक गुमशुदा कवि के नाम पत्नी का विज्ञापन

हे मेरे बारह बच्चों के बाप,
तुम्हें लग जाए शीतला मइया का शाप
पता नहीं आदमी हो या कसाई
तुम्हें इस तरह जाते शर्म नहीं आई !!

जाना ही था तो आधे बच्चे अपने साथ ले जाते
आधे दर्जन मुझे दे जाते
पूरी प्लाटून मेरे लिए ही छोड गए हो
एक इंजन से बारह डिब्बे जोड गए हो !!

जब इनसे बहुत तंग हो जाती हूँ
एक ही बात कहके डराती हूँ
"नहीं मानोगे तो
तुम्हारे बाप को वापिस बुलवा दूँगी"
उनकी ढेर सारी कविताएँ सुनवा दूंगी"
बच्चे सहमकर चुप होने लगते हैं
कुछ तो डरकर रोने लगते हैं :(

इसलिए-
अगर तुम्हारी आँखों की
पूरी शर्म न बह गयी हो
थोडी-सी भी बाकी रह गयी हो
तो कभी घर लौट कर मत आना

ज्यादा तुम्हें क्या समझाना
चाहे जहाँ नाचो
चाहे जहाँ गाते रहना
मनीआर्डर हर महीने
घर पर भिजवाते रहना
तुम्हारे प्राणों की प्यासी-
श्रीमती सत्यानाशी |
 -सुरेन्द्रमोहन मिश्र

भाईचारा

धर्म-निरपेक्षता को
ध्यान में रख
जातिवाद को उन्होंने
यों मिटा दिया
कि बीच शहर में
तत्काल ही
एक मयखाना बनवा दिया | 
-ऋषि गौड

धर्म-निरपेक्षता

धर्म-निरपेक्षता
और
तटस्थता की पवित्र नीति
यों अपनाई हमने
कि हो गए धर्महीन
छोड दिए सब रिवाज
और तोड दीं सब रीति | 
-ऋषि गौड

छात्र की इज्जत

शिक्षक ने
छात्र से कहा-
"आजकल तुम
स्कूल क्यों नहीं आते ?"
छात्र बोला-
विनम्रता से सकुचाते-
"सर,
हमारे घर की
प्राचीन परंपराओं की
साख मिटती है
एक जगह
बार-बार जाने से
इज्जत घटती है " 
-डॉ. शंकर सहर्ष

नेताजी से

जनता बोली-
"क्यों नेताजी,
हमने तुम्हें वोट देकर के
राजनीति की कुर्सी दी है
तुमने इसके बदले बोलो
हम जनता को क्या लौटाया?"

नेता बोला-
"प्यारी जनता
मेरी भोली, न्यारी जनता
तुमने सौंपी मुझको सत्ता
बदले में मैं क्या दे सकता

भ्रष्टाचार, घोटाला
चारा और हवाला
हडतालें-आंदोलन
अफसरशाही-भूमिदोहन
कालाहांडी, कच्छ-अकाल
भूखी माँएँ-रोगी लाल

अरे बुद्धुओं, चुप ही बैठो
मत माँगो तुम हमसे उत्तर
देने को मैं वायदे दूँगा
नारे और घोटाले दूँगा
खुली जुबाँ को ताले दूँगा
आश्वासन हर बार मिलेंगे
पढने को अखबार मिलेंगे " 
-योगेन्द्र मौदगिल

पाँच-पचास का हिसाब

एक स्वर्गीय नेता नरक में गया,
यमराज ने कहा कि चुपचाप बैठ जाइये ।
अपने मुनीम चित्रगुप्त को बुलाके बोले,
इनका हिसाब अतिशीघ्र समझाइये ।
चित्रगुप्त ने कहा कि यमराज महाराज,
इनके हिसाब में न शीघ्रता दिखाइये ।
पाँच साल में जो इन्होंने हैं कारनामे किये,
उन्हें बतलाने को पचास साल चाहिए । 
-ओमप्रकाश आदित्य

फूलन और संसद

फूलन से पत्रकारों ने किया प्रश्न,
संयोग से वियोग से
या फिर
राजकारण के योग से
आपका हो गया है
संसद के लिये चयन
तो
संसद में बैठते हुए
आपको कैसा लग रहा है |
फूलन बोली-
अपने परिवार के साथ
बैठने में अच्छा ही लग रहा है | 
-डॉ. माणिक मृगेश

नेता

नेताजी को देख
गधे ने टाँग उठाई |
पूछा-
"कैसी गुजर रही है मेरे भाई?"
'भाई' सुनकर,
नेताजी को गुस्सा आई |
दाँत पीसकर
मुक्का ताना
और गधे पर रौब जमाई |
बोले-
"क्यों बे, बनता है तू मेरा भाई?"
तभी गधे ने,
कोमल स्वर में यों फरमाया-
"रात तुम्हीं तो,
खुले मंच पर रेंक रहे थे |"
 
-ठा. जमनाप्रसाद 'जलेश'

पहचान

आपसी चर्चा के दौरान
'
तिरंगा झंडा' में
"कौन-सा रंग नीचे होता है?"
जब वह नहीं जाना,
तब कहीं जाकर
विदेशियों ने उसे
'भारतीय नेता' माना | 
-उमाशंकर मनमौजी

गुरुवार, 28 जून 2007

प्यार करो

प्यार करो कल नहीं आज करो
आज क्यों? अभी करो
लेकिन किसी नेक से करो
फिर भी केवल एक से करो
यह कोई सत्यनारायण का प्रसाद नहीं
कि आप हरेक से करो | 
-दि.म.

एक गुमशुदा कवि के लिए भाई का विज्ञापन

प्रिय भैया कवि,
तुम जहाँ कहीं भी हो
वहीं रहना
जो भी कष्ट पडे अकेले सहना

तुम्हारे जाने का किसी को दुःख होगा
यह सिर्फ मन की भ्रान्ति है
जब से तुम गये हो
घर में पूर्ण शान्ति है

तुम्हारी बीमार माता अब सुखी जीवन जी रही है
पत्नी दोनों वक्त 'बौर्नविटा' पी रही है
तुम्हारे तीनों साले घर पर ही डंड पेल रहे हैं
चारों बच्चे गली में गिल्ली-डंडा खेल रहे हैं

उधार वाले दुकानदार जरूर घबडा गये हैं
कई बार घर के चक्कर भी लगा गये हैं
इसलिए प्रिय भैया कवि!
तुम जहाँ कहीं भी हो वहीं रहना
जो भी कष्ट पडे अकेले सहना

तुम्हारे जाने से फालतू कविता-प्रेमी
अवश्य दुःखी हो गए हैं
पर मुहल्ले के तो सभी लोग सुखी हो गए हैं

नोट-
जो कोई भी इस गुमशुदा का पता हमें देगा
हमारे साथ दुश्मनी करेगा
जो इसे मनाकर
घर ले आएगा
वो पुरस्कार नहीं दंड पाएगा | 
-सुरेन्द्रमोहन मिश्र