गधे ने टाँग उठाई |
पूछा-
"कैसी गुजर रही है मेरे भाई?"
'भाई' सुनकर,
नेताजी को गुस्सा आई |
दाँत पीसकर
मुक्का ताना
और गधे पर रौब जमाई |
बोले-
"क्यों बे, बनता है तू मेरा भाई?"
तभी गधे ने,
कोमल स्वर में यों फरमाया-
"रात तुम्हीं तो,
खुले मंच पर रेंक रहे थे |"
-ठा. जमनाप्रसाद 'जलेश'
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