रविवार, 28 दिसंबर 2008

हाय रे मेरी कविता !!

शहर में लगा था इश्तिहार

जिसका मजमून था

कि

जो भी महानुभाव

अपनी कविता की प्रतिभा

दिखाना चाहते हों

पचास का एक नोट

रजिस्ट्रेशन फी के रूप में लेकर

नियत तारीख को आ जाएं

और अपनी कविता रूपी प्रतिभा से

दस-दस रुपए में इकठ्ठा किए गए

श्रोताओं का मुकाबिला करा जाएं.


इसे पढ़कर मैंने भी सोचा

क्यूं ना अपना भी भाग्य आजमा जाए

और मुद्रा देकर बुलाए गए श्रोताओं से

मुकाबिला कराया जाए.


सड़े टमाटर एवं अंडों रूपी खतरे की आशंका को दरकिनार कर

आखिर पहुंच ही गया

कवि-सम्मेलन के मंडप में

नियत दिन को

संध्या छः बजे से कुछ पहले,

वहां पहुंच कर आया मुझे रोना

जब देखा मैंने मात्र दो-चार को ही,

मेरी रोनी सूरत को देखकर

वहां उपस्थित में से एक ने पूछा-

आप कौन हो भाई

क्यों है रोनी सूरत बनाई?

क्या आप भी कवि-सम्मेलन में भाग लेने आये हो?

मेरे हां कहने पर

उन्होने ढांढस बधायी

और बोले-

थोड़ा सब्र करो मेरे भाई

कार्यक्रम शुरु होने में अभी थोड़ी देर है.


खैर,

कैसे-कैसे करके काटे मैंने कुछ और घंटे

इंतिजार की घड़ी हुई खतम

भीड़ के भीड़ में लोग पहुंचने लगे

यह देखकर

मन हुआ अति गदगद.


लेकिन हाय रे दैव,

उस भीड़ में सुनने वाले थे कम

और सुनाने वालों को देखकर

निकला जा रहा था दम.


धैर्य झगड़ुआ की

कि आखिर में मेरी भी बारी आई,

और अपना नाम पुकारे जाने पर

उठकर मैंने ली एक अंगड़ाई

और अपनी कविता की प्रतिभा से

जैसे ही घूंघट हटाई,

भीड़ गई बौखलाई

और अपनी बचाते हुए

दूसरों की चप्पलें उठाकर

मंच की तरफ फेंकते हुए चिल्लाई-

जल्दी से कविता का घूंघट गिरा

नहीं तो तेरी शामत है आई.

2 टिप्‍पणियां:

  1. फिर चाट गये! कविता तो क्या, तुम्हें तो बस चाटने का बहाना चाहिये। कम्बख्त तुम्हारा मन भी नहीं भरता। और तुम्हारी ये पद्यबद्ध शै्ली हम गरीबों पर और भी कहर ढाती है हुज़ूर....
    बड़ी बेशर्मी से लेकिन आपबीती बयाँ करते हो...

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  2. kaviya me to jaan hain bhai lekin.. jaam bujh ke kavita sunane ki risk ku uthate hain...


    wase no risk no gen

    जवाब देंहटाएं

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