आहिरे बालम चिरई ।
बन-बन ढूँढलीं, दर-दर ढूँढलीं,
ढूँढलीं नदी के तीरे,
साँझ के ढूँढलीं रात के ढूँढलीं,
ढूँढलीं होत फजीरे
जन में ढूँढलीं, मन में ढूँढलीं,
ढूँढलीं बीच बाजारे,
हिया हिया में पैस के ढूँढलीं,
ढूँढलीं बिरह के मारे
कवने अतरे में,
कवने अतरे में समइलू,
आही रे बालम चिरई ।
गीत के हर घड़ी से पूछलीं,
पूछलीं राग मिलन से,
छंद छंद लय ताल से पूछलीं,
पूछलीं सुर के मन से
किरन किरन से जाके पूछलीं,
पूछलीं नील गगन से,
धरती और पाताल से पूछलीं,
पूछलीं मस्त पवन से
कवने सुगना पर,
कवने सुगना पर लुभइलू,
आही रे बालम चिरई ।
मंदिर से मस्जिद तक देखली,
गिरजा से गुरूद्वारा,
गीता और कुरान में देखलीं,
देखलीं तीरथ सारा
पंडित से मुल्ला तक देखलीं,
देखलीं घरे कसाई,
सगरी उमिरिया छछनत जियरा,
कैसे तोहके पाईं
कवने बतिया पर,
कवने बतिया पर कोन्हइलू
आही रे बालम चिरई ।
कवने खोतवा में लुकइलू,
आही रे बालम चिरई ।
आही रे बालम चिरई,
आही रे बालम चिरई ॥
[प्रस्तुत निरगुन "भोजपुरी निरगुन" शृंखला की तीसरी प्रस्तुति है. इस निरगुन में "चिरई" प्रतीक का प्रयोग देही के देह में वास करने वाले "आत्मा" के लिए किया गया है. कठोपनिषद् में प्राप्त "आत्मा से सम्बन्धित" नचिकेता के द्वारा किये गए जिज्ञासा की झलक इस निरगुन में देख सकते हैं.]
इस निर्गुन को मु. खलील ने गाया है बहुत ही उम्दा. हमलोग इसे आकाशवाणी गोरखपुर पर सुना करते थे . बहुत ढूढने पर भी अन्तर्जाल पर इसका आडियो नहीं मिला . क्या आप कुछ कर सकते हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद इसे पोस्ट करने के लिए .
गिरिजेश