मंगलवार, 29 जनवरी 2008

बचपन का वह कॉमिक्स-प्रेम.....

आज ब्लॉग-दर-ब्लॉग घूम रहा था कि अचानक एक "चिट्ठे" पर नजर पड़ी, जिसके चिट्ठाकार भाई प्रतीक ने चाचा चौधरी के कॉमिक्स पर बड़ा ही रोचक एक लेख लिखा है, उसे पढ़कर मुझे भी अपने बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक के दिनों के "कॉमिक्स-प्रेम" की याद आ गई. सोचा कि आप सबों से उन दिनों की इस याद को बाँटने में हर्ज क्या है !
उन दिनों कॉमिक्स के जादू में पड़कर पता नहीं कितनी बार माँ-पिताजी से पिटा होऊँगा, बता नहीं सकता. पिताजी हम भाई-बहनों को पढ़ाते-२ बीच में कुछ देर के लिए भी हटे नहीं कि कोर्स की पुस्तकों के बीच में अपने प्यारे "नागराज" को रखकर उससे बातें शुरु कर दी. इस हद तक इन महोदयों से प्यार हो गया था कि शौचालय में भी वे साथ होते.
माँ द्वारा कितनी बार इन चाचा चौधरी, नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, भोकाल इत्यादि का पोस्टमार्टम हुआ, उसके बाद भाड़े पर लाये गये उन महोदयों (कॉमिक्स-पात्र) के मालिक से छुपने-छुपाने का खेल चलता. फिर उसके बाद मौका खोजा जाता कि कब पिताजी अपना कुर्ता खोल कर टाँगे और ५-१० रुपये सफाई के साथ निकाल कर दुकानदार के पैसे चुकाए जाएँ. कभी-कभी तो यह सफाई पिताजी की भुलक्कड़ी प्रवृत्ति से काम कर जाती किन्तु गाहे-बगाहे यह सफाई "दुःखहरण-यन्त्र" का शिकार भी बना देती.

आही रे बालम चिरई (निरगुन)

कवना खोतवा में लुकइलो,
आहिरे बालम चिरई ।

बन-बन ढूँढलीं, दर-दर ढूँढलीं,
ढूँढलीं नदी के तीरे,
साँझ के ढूँढलीं रात के ढूँढलीं,
ढूँढलीं होत फजीरे

जन में ढूँढलीं, मन में ढूँढलीं,
ढूँढलीं बीच बाजारे,
हिया हिया में पैस के ढूँढलीं,
ढूँढलीं बिरह के मारे

कवने अतरे में,
कवने अतरे में समइलू,
आही रे बालम चिरई ।

गीत के हर घड़ी से पूछलीं,
पूछलीं राग मिलन से,
छंद छंद लय ताल से पूछलीं,
पूछलीं सुर के मन से

किरन किरन से जाके पूछलीं,
पूछलीं नील गगन से,
धरती और पाताल से पूछलीं,
पूछलीं मस्त पवन से

कवने सुगना पर,
कवने सुगना पर लुभइलू,
आही रे बालम चिरई ।

मंदिर से मस्जिद तक देखली,
गिरजा से गुरूद्वारा,
गीता और कुरान में देखलीं,
देखलीं तीरथ सारा

पंडित से मुल्ला तक देखलीं,
देखलीं घरे कसाई,
सगरी उमिरिया छछनत जियरा,
कैसे तोहके पाईं

कवने बतिया पर,
कवने बतिया पर कोन्हइलू
आही रे बालम चिरई ।

कवने खोतवा में लुकइलू,
आही रे बालम चिरई ।
आही रे बालम चिरई,
आही रे बालम चिरई ॥

[प्रस्तुत निरगुन "भोजपुरी निरगुन" शृंखला की तीसरी प्रस्तुति है. इस निरगुन में "चिरई" प्रतीक का प्रयोग देही के देह में वास करने वाले "आत्मा" के लिए किया गया है. कठोपनिषद् में प्राप्त "आत्मा से सम्बन्धित" नचिकेता के द्वारा किये गए जिज्ञासा की झलक इस निरगुन में देख सकते हैं.]

रविवार, 27 जनवरी 2008

चुनरिया में दाग लाग गईल (निरगुन)

बइठल रोवेली गुजरिया हो,
चुनरिया में दाग लाग गईल
कइसे जाईं पिया के नगरिया हो,
चुनरिया में दाग लाग गईल

आईल बा गवना के हमरो सनेसवा,
जाएके बा हमरा पियवा के देशवा
काँच बावे हमरी उमिरिया हो,
चुनरिया में दाग लाग गईल
बइठल रोवेली गुजरिया हो,
चुनरिया में दाग लाग गईल

नईहर में चार गो यार बनउलीं,
दिनरात उन्हीं से नैना लड़उलीं
उनके सुतउलीं हम सेजरिया हो,
चुनरिया में दाग लाग गईल
बइठल रोवेली गुजरिया हो,
चुनरिया में दाग लाग गईल

चार बात सजना के हम भूल गईलीं,
पछतात बानी का कईलीं
डोली आईल हमरो दुअरिया हो,
चुनरिया में दाग लाग गईल
बइठल रोवेली गुजरिया हो,
चुनरिया में दाग लाग गईल

चुनरिया के दाग "दीप" कईसे छुड़ाईब,
कईसे हम सजना के मुँहवा देखाईब
बरसेली अँखिया से बदरिया हो,
चुनरिया में दाग लाग गईल
बइठल रोवेली गुजरिया हो,
चुनरिया में दाग लाग गईल

[जब भी भोजपुरी गीत-संगीत की बात होती है तो यह मान लिया जाता है कि "गुड्डु रंगीला" टाइप व्यक्तियों के अश्लील गीत हीं भोजपुरी विरासत के प्रतिनिधि हैं. आइए, इस भ्रम को दूर करने हेतु उपरोक्त दार्शनिकता के पुट वाले गीत का मजा लें. ऐसे सामाजिक, राजनैतिक, दार्शनिक विषयों को आधार लेकर लिखे हुए गीतों का "भोजपुरी-साहित्य" में प्राचुर्य है. हाँ, यह अवश्य है कि हाईटेक प्रचार-प्रसार में ये गीत "रंगीला" टाइप गायकों के गीतों से थोड़े पीछे हैं.
अस्तु, प्रस्तुत गीत में मनुष्य-जन्म की सार्थकता को बतलाते हुए कहा जा रहा है कि हमने अपना सम्पूर्ण जीवन तो ऐसे ही निरर्थक बिता दिया. जिस उद्देश्य हेतु परमपिता ईश्वर ने हमें इस धरती पर भेजा था, उसको अब जाकर क्या जवाब दूँगा? ]

भँवरवा के तोहरा संगे जाई (निरगुन)

भँवरवा के तोहरा संगे जाई
के तोहरा संगे जाई
भँवरवा के तोहरा संगे जाई ।

आवे के बेरिया सभे केहु जाने,
दुअरा पे बाजल बधाई
जाये के बेरिया केहु ना जाने,
हंसा अकेले उड़ी जाई
भँवरवा के तोहरा संगे जाई ।

देहरी पकड़ के मेहरीं रोवें,
बाँह पकड़ के भाई,
बीच अँगनवा माताजी रोवें,
बबुआ के होखेला बिदाई
भँवरवा के तोहरा संगे जाई ।

कहत कबीर सुनो भाई साधो,
सतगुरू सरन में जाई
जो यह पद के अर्थ बतइहें,
जगत पार होई जाई
भँवरवा के तोहरा संगे जाई ।


[इस भोजपुरी निरगुन में मृत्यु के बाद का चित्रण बहुत ही सूक्ष्मता से किया गया है.]